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Book 1 in English

The Mahabharata in Sanskrit

Book 1
Chapter 3

  1 [सूत]
      जनमेजयः पारिक्षितः सह भरातृभिः कुरुक्षेत्रे दीर्घसत्त्रम उपास्ते
      तस्य भरातरस तरयः शरुतसेनॊग्रसेनॊ भीमसेन इति
  2 तेषु तत सत्रम उपासीनेषु तत्र शवाभ्यागच्छत सारमेयः
      सजनमेजयस्य भरातृभिर अभिहतॊ रॊरूयमाणॊ मातुः समीपम उपागच्छत
  3 तं माता रॊरूयमाणम उवाच
      किं रॊदिषि
      केनास्य अभिहत इति
  4 स एवम उक्तॊ मातरं परत्युवाच
      जनमेजयस्य भरातृभिर अभिहतॊ ऽसमीति
  5 तं माता परत्युवाच
      वयक्तं तवया तत्रापराद्धं येनास्य अभिहत इति
  6 स तां पुनर उवाच
      नापराध्यामि किं चित
      नावेक्षे हवींषि नावलिह इति
  7 तच छरुत्वा तस्य माता सरमा पुत्रशॊकार्ता तत सत्रम उपागच्छद यत्र सजनमेजयः सह भरातृभिर दीर्घसत्रम उपास्ते
  8 स तया करुद्धया तत्रॊक्तः
      अयं मे पुत्रॊ न किं चिद अपराध्यति
      किमर्थम अभिहत इति
      यस्माच चायम अभिहतॊ ऽनपकारी तस्माद अदृष्टं तवां भयम आगमिष्यतीति
  9 सजनमेजय एवम उक्तॊ देव शुन्या सरमया दृढं संभ्रान्तॊ विषण्णश चासीत
  10 स तस्मिन सत्रे समाप्ते हास्तिनपुरं परत्येत्य पुरॊहितम अनुरूपम अन्विच्छमानः परं यत्नम अकरॊद यॊ मे पापकृत्यां शमयेद इति
 11 स कदा चिन मृगयां यातः पारिक्षितॊ जनमेजयः कस्मिंश चित सवविषयॊद्देशे आश्रमम अपश्यत
 12 तत्र कश चिद ऋषिर आसां चक्रे शरुतश्रवा नाम
     तस्याभिमतः पुत्र आस्ते सॊमश्रवा नाम
 13 तस्य तं पुत्रम अभिगम्य जनमेजयः पारिक्षितः पौरॊहित्याय वव्रे
 14 स नमस्कृत्य तम ऋषिम उवाच
     भगवन्न अयं तव पुत्रॊ मम पुरॊहितॊ ऽसत्व इति
 15 स एवम उक्तः परत्युवाच
     भॊ जनमेजय पुत्रॊ ऽयं मम सर्प्यां जातः
     महातपस्वी सवाध्यायसंपन्नॊ मत तपॊ वीर्यसंभृतॊ मच छुक्रं पीतवत्यास तस्याः कुक्षौ संवृद्धः
     समर्थॊ ऽयं भवतः सर्वाः पापकृत्याः शमयितुम अन्तरेण महादेव कृत्याम
     अस्य तव एकम उपांशु वरतम
     यद एनं कश चिद बराह्मणः कं चिद अर्थम अभियाचेत तं तस्मै दद्याद अयम
     यद्य एतद उत्सहसे ततॊ नयस्वैनम इति
 16 तेनैवम उत्कॊ जनमेजयस तं परत्युवाच
     भगवंस तथा भविष्यतीति
 17 स तं पुरॊहितम उपादायॊपावृत्तॊ भरातॄन उवाच
     मयायं वृत उपाध्यायः
     यद अयं बरूयात तत कार्यम अविचारयद्भिर इति
 18 तेनैवम उक्ता भरातरस तस्य तथा चक्रुः
     स तथा भरातॄन संदिश्य तक्षशिलां परत्यभिप्रतस्थे
     तं च देशं वशे सथापयाम आस
 19 एतस्मिन्न अन्तरे कश चिद ऋषिर धौम्यॊ नामायॊदः
 20 स एकं शिष्यम आरुणिं पाञ्चाल्यं परेषयाम आस
     गच्छ केदारखण्डं बधानेति
 21 स उपाध्यायेन संदिष्ट आरुणिः पाञ्चाल्यस तत्र गत्वा तत केदारखण्डं बद्धुं नाशक्नॊत
 22 स कलिश्यमानॊ ऽपश्यद उपायम
     भवत्व एवं करिष्यामीति
 23 स तत्र संविवेश केदारखण्डे
     शयाने तस्मिंस तद उदकं तस्थौ
 24 ततः कदा चिद उपाध्याय आयॊदॊ धौम्यः शिष्यान अपृच्छत
     कव आरुणिः पाञ्चाल्यॊ गत इति
 25 ते परत्यूचुः
     भगवतैव परेषितॊ गच्छ केदारखण्डं बधानेति
 26 स एवम उक्तस ताञ शिष्यान परत्युवाच
     तस्मात सर्वे तत्र गच्छामॊ यत्र स इति
 27 स तत्र गत्वा तस्याह्वानाय शब्दं चकार
     भॊ आरुणे पाञ्चाल्य कवासि
     वत्सैहीति
 28 स तच छरुत्वा आरुणिर उपाध्याय वाक्यं तस्मात केदारखण्डात सहसॊत्थाय तम उपाध्यायम उपतस्थे
     परॊवाच चैनम
     अयम अस्म्य अत्र केदारखण्डे निःसरमाणम उदकम अवारणीयं संरॊद्धुं संविष्टॊ भगवच छब्दं शरुत्वैव सहसा विदार्य केदारखण्डं भगवन्तम उपस्थितः
     तद अभिवादये भगवन्तम
     आज्ञापयतु भवान
     किं करवाणीति
 29 तम उपाध्यायॊ ऽबरवीत
     यस्माद भवान केदारखण्डम अवदार्यॊत्थितस तस्माद भवान उद्दालक एव नाम्ना भविष्यतीति
 30 स उपाध्यायेनानुगृहीतः
     यस्मात तवया मद्वचॊ ऽनुष्ठितं तस्माच छरेयॊ ऽवाप्स्यसीति
     सर्वे च ते वेदाः परतिभास्यन्ति सर्वाणि च धर्मशास्त्राणीति
 31 स एवम उक्त उपाध्यायेनेष्टं देशं जगाम
 32 अथापरः शिष्यस तस्यैवायॊदस्य दौम्यस्यॊपमन्युर नाम
 33 तम उपाध्यायः परेषयाम आस
     वत्सॊपमन्यॊ गा रक्षस्वेति
 34 स उपाध्याय वचनाद अरक्षद गाः
     स चाहनि गा रक्षित्वा दिवसक्षये ऽभयागम्यॊपाध्यायस्याग्रतः सथित्वा नमश चक्रे
 35 तम उपाध्यायः पीवानम अपश्यत
     उवाच चैनम
     वत्सॊपमन्यॊ केन वृत्तिं कल्पयसि
     पीवान असि दृढम इति
 36 स उपाध्यायं परत्युवाच
     भैक्षेण वृत्तिं कल्पयामीति
 37 तम उपाध्यायः परत्युवाच
     ममानिवेद्य भैक्षं नॊपयॊक्तव्यम इति
 38 स तथेत्य उक्त्वा पुनर अरक्षद गाः
     रक्षित्वा चागम्य तथैवॊपाध्यायस्याग्रतः सथित्वा नमश चक्रे
 39 तम उपाध्यायस तथापि पीवानम एव दृष्ट्वॊवाच
     वत्सॊपमन्यॊ सर्वम अशेषतस ते भैक्षं गृह्णामि
     केनेदानीं वृत्तिं कल्पयसीति
 40 स एवम उक्त उपाध्यायेन परत्युवाच
     भगवते निवेद्य पूर्वम अपरं चरामि
     तेन वृत्तिं कल्पयामीति
 41 तम उपाध्यायः परत्युवाच
     नैषा नयाय्या गुरुवृत्तिः
     अन्येषाम अपि वृत्त्युपरॊधं करॊष्य एवं वर्तमानः
     लुब्धॊ ऽसीति
 42 स तथेत्य उक्त्वा गा अरक्षत
     रक्षित्वा च पुनर उपाध्याय गृहम आगम्यॊपाध्यायस्याग्रतः सथित्वा नमश चक्रे
 43 तम उपाध्यायस तथापि पीवानम एव दृष्ट्वा पुनर उवाच
     अहं ते सर्वं भैक्षं गृह्णामि न चान्यच चरसि
     पीवान असि
     केन वृत्तिं कल्पयसीति
 44 स उपाध्यायं परत्युवाच
     भॊ एतासां गवां पयसा वृत्तिं कल्पयामीति
 45 तम उपाध्यायः परत्युवाच
     नैतन नयाय्यं पय उपयॊक्तुं भवतॊ मयाननुज्ञातम इति
 46 स तथेति परतिज्ञाय गा रक्षित्वा पुनर उपाध्याय गृहान एत्य पुरॊर अग्रतः सथित्वा नमश चक्रे
 47 तम उपाध्यायः पीवानम एवापश्यत
     उवाच चैनम
     भैक्षं नाश्नासि न चान्यच चरसि
     पयॊ न पिबसि
     पीवान असि
     केन वृत्तिं कल्पयसीति
 48 स एवम उक्त उपाध्यायं परत्युवाच
     भॊः फेनं पिबामि यम इमे वत्सा मातॄणां सतनं पिबन्त उद्गिरन्तीति
 49 तम उपाध्यायः परत्युवाच
     एते तवद अनुकम्पया गुणवन्तॊ वत्साः परभूततरं फेनम उद्गिरन्ति
     तद एवम अपि वत्सानां वृत्त्युपरॊधं करॊष्य एवं वर्तमानः
     फेनम अपि भवान न पातुम अर्हतीति
 50 स तथेति परतिज्ञाय निराहारस ता गा अरक्षत
     तथा परतिषिद्धॊ भैक्षं नाश्नाति न चान्यच चरति
     पयॊ न पिबति
     फेनं नॊपयुङ्क्ते
 51 स कदा चिद अरण्ये कषुधार्तॊ ऽरकपत्राण्य अभक्षयत
 52 स तैर अर्कपत्रैर भक्षितैः कषार कटूष्ण विपाकिभिश चक्षुष्य उपहतॊ ऽनधॊ ऽभवत
     सॊ ऽनधॊ ऽपि चङ्क्रम्यमाणः कूपे ऽपतत
 53 अथ तस्मिन्न अनागच्छत्य उपाध्यायः शिष्यान अवॊचत
     मयॊपमन्युः सर्वतः परतिषिद्धः
     स नियतं कुपितः
     ततॊ नागच्छति चिरगतश चेति
 54 स एवम उक्त्वा गत्वारण्यम उपमन्यॊर आह्वानं चक्रे
     भॊ उपमन्यॊ कवासि
     वत्सैहीति
 55 स तदाह्वानम उपाध्यायाच छरुत्वा परत्युवाचॊच्चैः
     अयम अस्मि भॊ उपाध्याय कूपे पतित इति
 56 तम उपाध्यायः परत्युवाच
     कथम असि कूपे पतित इति
 57 स तं परत्युवाच
     अर्कपत्राणि भक्षयित्वान्धी भूतॊ ऽसमि
     अतः कूपे पतित इति
 58 तम उपाध्यायः परत्युवाच
     अश्विनौ सतुहि
     तौ तवां चक्षुष्मन्तं करिष्यतॊ देव भिषजाव इति
 59 स एवम उक्त उपाध्यायेन सतॊतुं परचक्रमे देवाव अश्विनौ वाग्भिर ऋग्भिः
 60 परपूर्वगौ पूर्वजौ चित्रभानू; गिरा वा शंसामि तपनाव अनन्तौ
     दिव्यौ सुपर्णौ विरजौ विमानाव; अधिक्षियन्तौ भुवनानि विश्वा
 61 हिरण्मयौ शकुनी साम्परायौ; नासत्य दस्रौ सुनसौ वैजयन्तौ
     शुक्रं वयन्तौ तरसा सुवेमाव; अभि वययन्ताव असितं विवस्वत
 62 गरस्तां सुपर्णस्य बलेन वर्तिकाम; अमुञ्चताम अश्विनौ सौभगाय
     तावत सुवृत्ताव अनमन्त मायया; सत्तमा गा अरुणा उदावहन
 63 षष्टिश च गावस तरिशताश च धेनव; एकं वत्सं सुवते तं दुहन्ति
     नाना गॊष्ठा विहिता एकदॊहनास; ताव अश्विनौ दुहतॊ घर्मम उक्थ्यम
 64 एकां नाभिं सप्तशता अराः शरिताः; परधिष्व अन्या विंशतिर अर्पिता अराः
     अनेमि चक्रं परिवर्तते ऽजरं; मायाश्विनौ समनक्ति चर्षणी
 65 एकं चक्रं वर्तते दवादशारं; परधि षण णाभिम एकाक्षम अमृतस्य धारणम
     यस्मिन देवा अधि विश्वे विषक्तास; ताव अश्विनौ मुञ्चतॊ मा विषीदतम
 66 अश्विनाव इन्द्रम अमृतं वृत्तभूयौ; तिरॊधत्ताम अश्विनौ दासपत्नी
     भित्त्वा गिरिम अश्विनौ गाम उदाचरन्तौ; तद वृष्टम अह्ना परथिता वलस्य
 67 युवां दिशॊ जनयथॊ दशाग्रे; समानं मूर्ध्नि रथया वियन्ति
     तासां यातम ऋषयॊ ऽनुप्रयान्ति; देवा मनुष्याः कषितिम आचरन्ति
 68 युवां वर्णान विकुरुथॊ विश्वरूपांस; ते ऽधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा
     ते भानवॊ ऽपय अनुसृताश चरन्ति; देवा मनुष्याः कषितिम आचरन्ति
 69 तौ नासत्याव अश्विनाव आमहे वां; सरजं च यां बिभृथः पुष्करस्य
     तौ नासत्याव अमृतावृतावृधाव; ऋते देवास तत परपदेन सूते
 70 मुखेन गर्भं लभतां युवानौ; गतासुर एतत परपदेन सूते
     सद्यॊ जातॊ मातरम अत्ति गर्भस ताव; अश्विनौ मुञ्चथॊ जीवसे गाः
 71 एवं तेनाभिष्टुताव अश्विनाव आजग्मतुः
     आहतुश चैनम
     परीतौ सवः
     एष ते ऽपूपः
     अशानैनम इति
 72 स एवम उतः परत्युवाच
     नानृतम ऊचतुर भवन्तौ
     न तव अहम एतम अपूपम उपयॊक्तुम उत्सहे अनिवेद्य गुरव इति
 73 ततस तम अश्विनाव ऊचतुः
     आवाभ्यां पुरस्ताद भवत उपाध्यायेनैवम एवाभिष्टुताभ्याम अपूपः परीताभ्यां दत्तः
     उपयुक्तश च स तेनानिवेद्य गुरवे
     तवम अपि तथैव कुरुष्व यथा कृतम उपाध्यायेनेति
 74 स एवम उक्तः पुनर एव परत्युवाचैतौ
     परत्यनुनये भवन्ताव अश्विनौ
     नॊत्सहे ऽहम अनिवेद्यॊपाध्यायायॊपयॊक्तुम इति
 75 तम अश्विनाव आहतुः
     परीतौ सवस तवानया गुरुवृत्त्या
     उपाध्यायस्य ते कार्ष्णायसा दन्ताः
     भवतॊ हिरण्मया भविष्यन्ति
     चक्षुष्मांश च भविष्यसि
     शरेयश चावाप्स्यसीति
 76 स एवम उक्तॊ ऽशविभ्यां लब्धचक्षुर उपाध्याय सकाशम आगम्यॊपाध्यायम अभिवाद्याचचक्षे
     स चास्य परीतिमान अभूत
 77 आह चैनम
     यथाश्विनाव आहतुस तथा तवं शरेयॊ ऽवाप्स्यसीति
     सर्वे च ते वेदाः परतिभास्यन्तीति
 78 एषा तस्यापि परीक्षॊपमन्यॊः
 79 अथापरः शिष्यस तस्यैवायॊदस्य धौम्यस्य वेदॊ नाम
 80 तम उपाध्यायः संदिदेश
     वत्स वेद इहास्यताम
     भवता मद्गृहे कं चित कालं शुश्रूषमाणेन भवितव्यम
     शरेयस ते भविष्यतीति
 81 स तथेत्य उक्त्वा गुरु कुले दीर्घकालं गुरुशुश्रूषणपरॊ ऽवसत
     गौर इव नित्यं गुरुषु धूर्षु नियुज्यमानः शीतॊष्णक्षुत तृष्णा दुःखसहः सर्वत्राप्रतिकूलः
 82 तस्य महता कालेन गुरुः परितॊषं जगाम
     तत्परितॊषाच च शरेयः सर्वज्ञतां चावाप
     एषा तस्यापि परीक्षा वेदस्य
 83 स उपाध्यायेनानुज्ञातः समावृत्तस तस्माद गुरु कुलवासाद गृहाश्रमं परत्यपद्यत
     तस्यापि सवगृहे वसतस तरयः शिष्या बभूवुः
 84 स शिष्यान न किं चिद उवाच
     कर्म वा करियतां गुरुशुश्रूषा वेति
     दुःखाभिज्ञॊ हि गुरु कुलवासस्य शिष्यान परिक्लेशेन यॊजयितुं नेयेष
 85 अथ कस्य चित कालस्य वेदं बराह्मणं जनमेजयः पौष्यश च कषत्रियाव उपेत्यॊपाध्यायं वरयां चक्रतुः
 86 स कदा चिद याज्य कार्येणाभिप्रस्थित उत्तङ्कं नाम शिष्यं नियॊजयाम आस
     भॊ उत्तङ्क यत किं चिद अस्मद गृहे परिहीयते यद इच्छाम्य अहम अपरिहीणं भवता करियमाणम इति
 87 स एवं परतिसमादिश्यॊत्तङ्कं वेदः परवासं जगाम
 88 अथॊत्तङ्कॊ गुरुशुश्रूषुर गुरु नियॊगम अनुतिष्ठमानस तत्र गुरु कुले वसति सम
 89 स वसंस तत्रॊपाध्याय सत्रीभिः सहिताभिर आहूयॊक्तः
     उपाध्यायिनी ते ऋतुमती
     उपाध्यायश च परॊषितः
     अस्या यथायम ऋतुर वन्ध्यॊ न भवति तथा करियताम
     एतद विषीदतीति
 90 स एवम उक्तस ताः सत्रियः परत्युवाच
     न मया सत्रीणां वचनाद इदम अकार्यं कार्यम
     न हय अहम उपाध्यायेन संदिष्टः
     अकार्यम अपि तवया कार्यम इति
 91 तस्य पुनर उपाध्यायः कालान्तरेण गृहान उपजगाम तस्मात परवासात
     स तद्वृत्तं तस्याशेषम उपलभ्य परीतिमान अभूत
 92 उवाच चैनम
     वत्सॊत्तङ्क किं ते परियं करवाणीति
     धर्मतॊ हि शुश्रूषितॊ ऽसमि भवता
     तेन परीतिः परस्परेण नौ संवृद्धा
     तद अनुजाने भवन्तम
     सर्वाम एव सिद्धिं पराप्स्यसि
     गम्यताम इति
 93 स एवम उक्तः परत्युवाच
     किं ते परियं करवाणीति
     एवं हय आहुः
 94 यश चाधर्मेण विब्रूयाद यश चाधर्मेण पृच्छति
 95 तयॊर अन्यतरः परैति विद्वेषं चाधिगच्छति
     सॊ ऽहम अनुज्ञातॊ भवता इच्छामीष्टं ते गुर्वर्थम उपहर्तुम इति
 96 तेनैवम उक्त उपाध्यायः परत्युवाच
     वत्सॊत्तङ्क उष्यतां तावद इति
 97 स कदा चित तम उपाध्यायम आहॊत्तङ्कः
     आज्ञापयतु भवान
     किं ते परियम उपहरामि गुर्वर्थम इति
 98 तम उपाध्यायः परत्युवाच
     वत्सॊत्तङ्क बहुशॊ मां चॊदयसि गुर्वर्थम उपहरेयम इति
     तद गच्छ
     एनां परविश्यॊपाध्यायनीं पृच्छ किम उपहरामीति
     एषा यद बरवीति तद उपहरस्वेति
 99 स एवम उक्तॊपाध्यायेनॊपाध्यायिनीम अपृच्छत
     भवत्य उपाध्यायेनास्म्य अनुज्ञातॊ गृहं गन्तुम
     तद इच्छामीष्टं ते गुर्वर्थम उपहृत्यानृणॊ गन्तुम
     तद आज्ञापयतु भवती
     किम उपहरामि गुर्वर्थम इति
 100 सैवम उक्तॊपाध्यायिन्य उत्तङ्कं परत्युवाच
    गच्छ पौष्यं राजानम
    भिक्षस्व तस्य कषत्रियया पिनद्धे कुण्डले
    ते आनयस्व
    इतश चतुर्थे ऽहनि पुण्यकं भविता
    ताभ्याम आबद्धाभ्यां बराह्मणान परिवेष्टुम इच्छामि
    शॊभमाना यथा ताभ्यां कुण्डलाभ्यां तस्मिन्न अहनि संपादयस्व
    शरेयॊ हि ते सयात कषणं कुर्वत इति
101 स एवम उक्त उपाध्यायिन्या परातिष्ठतॊत्तङ्कः
    स पथि गच्छन्न अपश्यद ऋषभम अतिप्रमाणं तम अधिरूढं च पुरुषम अतिप्रमाणम एव
102 स पुरुष उत्तङ्कम अभ्यभाषत
    उत्तङ्कैतत पुरीषम अस्य ऋषभस्य भक्षस्वेति
103 स एवम उक्तॊ नैच्छति
104 तम आह पुरुषॊ भूयः
    भक्षयस्वॊत्तङ्क
    मा विचारय
    उपाध्यायेनापि ते भक्षितं पूर्वम इति
105 स एवम उक्तॊ बाढम इत्य उक्त्वा तदा तद ऋषभस्य पुरीषं मूत्रं च भक्षयित्वॊत्तङ्कः परतस्थे यत्र स कषत्रियः पौष्यः
106 तम उपेत्यापश्यद उत्तङ्क आसीनम
    स तम उपेत्याशीर्भिर अभिनन्द्यॊवाच
    अर्थी भवन्तम उपगतॊ ऽसमीति
107 स एनम अभिवाद्यॊवाच
    भगवन पौष्यः खल्व अहम
    किं करवाणीति
108 तम उवाचॊत्तङ्कः
    गुर्वर्थे कुण्डलाभ्याम अर्थ्य आगतॊ ऽसमीति ये ते कषत्रियया पिनद्धे कुण्डले ते भवान दातुम अर्हतीति
109 तं पौष्यः परत्युवाच
    परविश्यान्तःपुरं कषत्रिया याच्यताम इति
110 स तेनैवम उक्तः परविश्यान्तःपुरं कषत्रियां नापश्यत
111 स पौष्यं पुनर उवाच
    न युक्तं भवता वयम अनृतेनॊपचरितुम
    न हि ते कषत्रियान्तःपुरे संनिहिता
    नैनां पश्यामीति
112 स एवम उक्तः पौष्यस तं परत्युवाच
    संप्रति भवान उच्छिष्टः
    समर तावत
    न हि सा कषत्रिया उच्छिष्टेनाशुचिना वा शक्या दरष्टुम
    पतिव्रतात्वाद एषा नाशुचेर दर्शनम उपैतीति
113 अथैवम उक्त उत्तङ्कः समृत्वॊवाच
    अस्ति खलु मयॊच्छिष्टेनॊपस्पृष्टं शीघ्रं गच्छता चेति
114 तं पौष्यः परत्युवाच
    एतत तद एवं हि
    न गच्छतॊपस्पृष्टं भवति न सथितेनेति
115 अथॊत्तङ्कस तथेत्य उक्त्वा पराङ्मुख उपविश्य सुप्रक्षालित पाणिपादवदनॊ ऽशब्दाभिर हृदयंगमाभिर अद्भिर उपस्पृश्य तरिः पीत्वा दविः परमृज्य खान्य अद्भिर उपस्पृश्यान्तःपुरं परविश्य तां कषत्रियाम अपश्यत
116 सा च दृष्ट्वैवॊत्तङ्कम अभ्युत्थायाभिवाद्यॊवाच
    सवागतं ते भगवन
    आज्ञापय किं करवाणीति
117 स ताम उवाच
    एते कुण्डले गुर्वर्थं मे भिक्षिते दातुम अर्हसीति
118 सा परीता तेन तस्य सद्भावेन पात्रम अयम अनतिक्रमणीयश चेति मत्वा ते कुण्डले अवमुच्यास्मै परायच्छत
119 आह चैनम
    एते कुण्डले तक्षकॊ नागराजः परार्थयति
    अप्रमत्तॊ नेतुम अर्हसीति
120 स एवम उक्तस तां कषत्रियां परत्युवाच
    भवति सुनिर्वृत्ता भव
    न मां शक्तस तक्षकॊ नागराजॊ धर्षयितुम इति
121 स एवम उक्त्वा तां कषत्रियाम आमन्त्र्य पौष्य सकाशम आगच्छत
122 स तं दृष्ट्वॊवाच
    भॊः पौष्य परीतॊ ऽसमीति
123 तं पौष्यः परत्युवाच
    भगवंश चिरस्य पात्रम आसाद्यते
    भवांश च गुणवान अतिथिः
    तत करिये शराद्धम
    कषणः करियताम इति
124 तम उत्तङ्कः परत्युवाच
    कृतक्षण एवास्मि
    शीघ्रम इच्छामि यथॊपपन्नम अन्नम उपहृतं भवतेति
125 स तथेत्य उक्त्वा यथॊपपन्नेनान्नेनैनं भॊजयाम आस
126 अथॊत्तङ्कः शीतम अन्नं सकेशं दृष्ट्वाशुच्य एतद इति मत्वा पौष्यम उवाच
    यस्मान मे अशुच्य अन्नं ददासि तस्मद अन्धॊ भविष्यसीति
127 तं पौष्यः परत्युवाच
    यस्मात तवम अप्य अदुष्टम अन्नं दूषयसि तस्माद अनपत्यॊ भविष्यसीति
128 सॊ ऽथ पौष्यस तस्याशुचि भावम अन्नस्यागमयाम आस
129 अथ तदन्नं मुक्तकेश्या सत्रियॊपहृतं सकेशम अशुचि मत्वॊत्तङ्कं परसादयाम आस
    भगवन्न अज्ञानाद एतद अन्नं सकेशम उपहृतं शीतं च
    तत कषामये भवन्तम
    न भवेयम अन्ध इति
130 तम उत्तङ्कः परत्युवाच
    न मृषा बरवीमि
    भूत्वा तवम अन्धॊ नचिराद अनन्धॊ भविष्यसीति
    ममापि शापॊ न भवेद भवता दत्त इति
131 तं पौष्यः परत्युवाच
    नाहं शक्तः शापं परत्यादातुम
    न हि मे मन्युर अद्याप्य उपशमं गच्छति
    किं चैतद भवता न जञायते यथा
132 नावनीतं हृदयं बराह्मणस्य; वाचि कषुरॊ निहितस तीक्ष्णधारः
    विपरीतम एतद उभयं कषत्रियस्य; वान नावनीती हृदयं तीक्ष्णधारम
133 इति
    तद एवंगते न शक्तॊ ऽहं तीक्ष्णहृदयत्वात तं शापम अन्यथा कर्तुम
    गम्यताम इति
134 तम उत्तङ्कः परत्युवाच
    भवताहम अन्नस्याशुचि भावम आगमय्य परत्यनुनीतः
    पराक च ते ऽभिहितम
    यस्माद अदुष्टम अन्नं दूषयसि तस्माद अनपत्यॊ भविष्यसीति
    दुष्टे चान्ने नैष मम शापॊ भविष्यतीति
135 साधयामस तावद इत्य उक्त्वा परातिष्ठतॊत्तङ्कस ते कुण्डले गृहीत्वा
136 सॊ ऽपश्यत पथि नग्नं शरमणम आगच्छन्तं मुहुर मुहुर दृश्यमानम अदृश्यमानं च
    अथॊत्तङ्कस ते कुण्डले भूमौ निक्षिप्यॊदकार्थं परचक्रमे
137 एतस्मिन्न अन्तरे स शरमणस तवरमाण उपसृत्य ते कुण्डले गृहीत्वा पराद्रवत
    तम उत्तङ्कॊ ऽभिसृत्य जग्राह
    स तद रूपं विहाय तक्षक रूपं कृत्वा सहसा धरण्यां विवृतं महाबिलं विवेश
138 परविश्य च नागलॊकं सवभवनम अगच्छत
    तम उत्तङ्कॊ ऽनवाविवेश तेनैव बिलेन
    परविश्य च नागान अस्तुवद एभिः शलॊकैः
139 य ऐरावत राजानः सर्पाः समितिशॊभनाः
    वर्षन्त इव जीमूताः सविद्युत्पवनेरिताः
140 सुरूपाश च विरूपाश च तथा कल्माषकुण्डलाः
    आदित्यवन नाकपृष्ठे रेजुर ऐरावतॊद्भवाः
141 बहूनि नागवर्त्मानि गङ्गायास तीर उत्तरे
    इच्छेत कॊ ऽरकांशु सेनायां चर्तुम ऐरावतं विना
142 शतान्य अशीतिर अष्टौ च सहस्राणि च विंशतिः
    सर्पाणां परग्रहा यान्ति धृतराष्ट्रॊ यद एजति
143 ये चैनम उपसर्पन्ति ये च दूरं परं गताः
    अहम ऐरावत जयेष्ठभ्रातृभ्यॊ ऽकरवं नमः
144 यस्य वासः कुरुक्षेत्रे खाण्डवे चाभवत सदा
    तं काद्रवेयम अस्तौषं कुण्डलार्थाय तक्षकम
145 तक्षकश चाश्वसेनश च नित्यं सहचराव उभौ
    कुरुक्षेत्रे निवसतां नदीम इक्षुमतीम अनु
146 जघन्यजस तक्षकस्य शरुतसेनेति यः शरुतः
    अवसद्यॊ महद दयुम्नि परार्थयन नागमुख्यताम
    करवाणि सदा चाहं नमस तस्मै महात्मने
147 एवं सतुवन्न अपि नागान यदा ते कुण्डले नालभद अथापश्यत सत्रियौ तन्त्रे अधिरॊप्य पटं वयन्त्यौ
148 तस्मिंश च तन्त्रे कृष्णाः सिताश च तन्तवः
    चक्रं चापश्यत षड्भिः कुमारैः परिवर्त्यमानम
    पुरुषं चापश्यद दर्शनीयम
149 स तान सर्वास तुष्टावैभिर मन्त्रवादश्लॊकैः
150 तरीण्य अर्पितान्य अत्र शतानि मध्ये; षष्टिश च नित्यं चरति धरुवे ऽसमिन
    चक्रे चतुर्विंशतिपर्व यॊगे षड; यत कुमाराः परिवर्तयन्ति
151 तन्त्रं चेदं विश्वरूपं युवत्यौ; वयतस तन्तून सततं वर्तयन्त्यौ
    कृष्णान सितांश चैव विवर्तयन्त्यौ; भूतान्य अजस्रं भुवनानि चैव
152 वज्रस्य भर्ता भुवनस्य गॊप्ता; वृत्रस्य हन्ता नमुचेर निहन्ता
    कृष्णे वसानॊ वसने महात्मा; सत्यानृते यॊ विविनक्ति लॊके
153 यॊ वाजिनं गर्भम अपां पुराणं; वैश्वानरं वाहनम अभ्युपेतः
    नमः सदास्मै जगद ईश्वराय; लॊकत्रयेशाय पुरंदराय
154 ततः स एनं पुरुषः पराह
    परीतॊ ऽसमि ते ऽहम अनेन सतॊत्रेण
    किं ते परियं करवाणीति
155 स तम उवाच
    नागा मे वशम ईयुर इति
156 स एनं पुरुषः पुनर उवाच
    एतम अश्वम अपाने धमस्वेति
157 स तम अश्वम अपाने ऽधमत
    अथाश्वाद धम्यमानात सर्वस्रॊतॊभ्यः सधूमा अर्चिषॊ ऽगनेर निष्पेतुः
158 ताभिर नागलॊकॊ धूपितः
159 अथ ससंभ्रमस तक्षकॊ ऽगनितेजॊ भयविषण्णस ते कुण्डले गृहीत्वा सहसा सवभवनान निष्क्रम्यॊत्तङ्कम उवाच
    एते कुण्डले परतिगृह्णातु भवान इति
160 स ते परतिजग्राहॊत्तङ्कः
    कुण्डले परतिगृह्याचिन्तयत
    अद्य तत पुण्यकम उपाध्यायिन्याः
    दूरं चाहम अभ्यागतः
    कथं नु खलु संभावयेयम इति
161 तत एनं चिन्तयानम एव स पुरुष उवाच
    उत्तङ्क एनम अश्वम अधिरॊह
    एष तवां कषणाद एवॊपाध्याय कुलं परापयिष्यतीति
162 स तथेत्य उक्त्वा तम अश्वम अधिरुह्य परत्याजगामॊपाध्याय कुलम
    उपाध्यायिनी च सनाता केशान आवपयन्त्य उपविष्टॊत्तङ्कॊ नागच्छतीति शापायास्य मनॊ दधे
163 अथॊत्तङ्कः परविश्यॊपाध्यायिनीम अभ्यवादयत
    ते चास्यै कुण्डले परायच्छत
164 सा चैनं परत्युवाच
    उत्तङ्क देशे काले ऽभयागतः
    सवागतं ते वत्स
    मनाग असि मया न शप्तः
    शरेयस तवॊपस्थितम
    सिद्धम आप्नुहीति
165 अथॊत्तङ्क उपाध्यायम अभ्यवादयत
    तम उपाध्यायः परत्युवाच
    वत्सॊत्तङ्क सवागतं ते
    किं चिरं कृतम इति
166 तम उत्तङ्क उपाध्यायं परत्युवाच
    भॊस तक्षकेण नागराजेन विघ्नः कृतॊ ऽसमिन कर्मणि
    तेनास्मि नागलॊकं नीतः
167 तत्र च मया दृष्टे सत्रियौ तन्त्रे ऽधिरॊप्य पटं वयन्त्यौ
    तस्मिंश च तन्त्रे कृष्णाः सिताश च तन्तवः
    किं तत
168 तत्र च मया चक्रं दृष्टं दवादशारम
    षट चैनं कुमाराः परिवर्तयन्ति
    तद अपि किम
169 पुरुषश चापि मया दृष्टः
    स पुनः कः
170 अश्वश चातिप्रमाण युक्तः
    स चापि कः
171 पथि गच्छता मयर्षभॊ दृष्टः
    तं च पुरुषॊ ऽधिरूढः
    तेनास्मि सॊपचारम उक्तः
    उत्तङ्कास्यर्षभस्य पुरीषं भक्षय
    उपाध्यायेनापि ते भक्षितम इति
    ततस तद वचनान मया तद ऋषभस्य पुरीषम उपयुक्तम
    तद इच्छामि भवतॊपदिष्टं किं तद इति
172 तेनैवम उक्त उपाध्यायः परत्युवाच
    ये ते सत्रियौ धाता विधाता च
    ये च ते कृष्णाः सिताश च तन्तवस ते रात्र्यहनी
173 यद अपि तच चक्रं दवादशारं षट कुमाराः परिवर्तयन्ति ते ऋतवः षट संवत्सरश चक्रम
    यः पुरुषः स पर्जन्यः
    यॊ ऽशवः सॊ ऽगनिः
174 य ऋषभस तवया पथि गच्छता दृष्टः स ऐरावतॊ नागराजः
    यश चैनम अधिरूढः सेन्द्रः
    यद अपि ते पुरीषं भक्षितं तस्य ऋषभस्य तद अमृतम
175 तेन खल्व असि न वयापन्नस तस्मिन नागभवने
    स चापि मम सखा इन्द्रः
176 तद अनुग्रहात कुण्डले गृहीत्वा पुनर अभ्यागतॊ ऽसि
    तत सौम्य गम्यताम
    अनुजाने भवन्तम
    शरेयॊ ऽवाप्स्यसीति
177 स उपाध्यायेनानुज्ञात उत्तङ्कः करुद्धस तक्षकस्य परतिचिकीर्षमाणॊ हास्तिनपुरं परतस्थे
178 स हास्तिनपुरं पराप्य नचिराद दविजसत्तमः
    समागच्छत राजानम उत्तङ्कॊ जनमेजयम
179 पुरा तक्षशिलातस तं निवृत्तम अपराजितम
    सम्यग विजयिनं दृष्ट्वा समन्तान मन्त्रिभिर वृतम
180 तस्मै जयाशिषः पूर्वं यथान्यायं परयुज्य सः
    उवाचैनं वचः काले शब्दसंपन्नया गिरा
181 अन्यस्मिन करणीये तवं कार्ये पार्थिव सत्तम
    बाल्याद इवान्यद एव तवं कुरुषे नृपसत्तम
182 एवम उक्तस तु विप्रेण स राजा परत्युवाच ह
    जनमेजयः परसन्नात्मा सम्यक संपूज्य तं मुनिम
183 आसां परजानां परिपालनेन; सवं कषत्रधर्मं परिपालयामि
    परब्रूहि वा किं करियतां दविजेन्द्र; शुश्रूषुर अस्म्य अद्य वचस तवदीयम
184 स एवम उक्तस तु नृपॊत्तमेन; दविजॊत्तमः पुण्यकृतां वरिष्ठः
    उवाच राजानम अदीनसत्त्वं; सवम एव कार्यं नृपतेश च यत तत
185 तक्षकेण नरेन्द्रेन्द्र येन ते हिंसितः पिता
    तस्मै परतिकुरुष्व तवं पन्नगाय दुरात्मने
186 कार्यकालं च मन्ये ऽहं विधिदृष्टस्य कर्मणः
    तद गच्छापचितिं राजन पितुस तस्य महात्मनः
187 तेन हय अनपराधी स दष्टॊ दुष्टान्तर आत्मना
    पञ्चत्वम अगमद राजा वर्जाहत इव दरुमः
188 बलदर्प समुत्सिक्तस तक्षकः पन्नगाधमः
    अकार्यं कृतवान पापॊ यॊ ऽदशत पितरं तव
189 राजर्षिर वंशगॊप्तारम अमर परतिमं नृपम
    जघान काश्यपं चैव नयवर्तयत पापकृत
190 दग्धुम अर्हसि तं पापं जवलिते हव्यवाहने
    सर्वसत्रे महाराज तवयि तद धि विधीयते
191 एवं पितुश चापचितिं गतवांस तवं भविष्यसि
    मम परियं च सुमहत कृतं राजन भविष्यति
192 कर्मणः पृथिवीपाल मम येन दुरात्मना
    विघ्नः कृतॊ महाराज गुर्वर्थं चरतॊ ऽनघ
193 एतच छरुत्वा तु नृपतिस तक्षकस्य चुकॊप ह
    उत्तङ्क वाक्यहविषा दीप्तॊ ऽगनिर हविषा यथा
194 अपृच्छच च तदा राजा मन्त्रिणः सवान सुदुःखितः
    उत्तङ्कस्यैव सांनिध्ये पितुः सवर्गगतिं परति
195 तदैव हि स राजेन्द्रॊ दुःखशॊकाप्लुतॊ ऽभवत
    यदैव पितरं वृत्तम उत्तङ्काद अशृणॊत तदा
  1 [sūta]
      janamejayaḥ pārikṣitaḥ saha bhrātṛbhiḥ kurukṣetre dīrghasattram upāste
      tasya bhrātaras trayaḥ śrutasenograseno bhīmasena iti
  2 teṣu tat satram upāsīneṣu tatra śvābhyāgacchat sārameyaḥ
      sajanamejayasya bhrātṛbhir abhihato rorūyamāṇo mātuḥ samīpam upāgacchat
  3 taṃ mātā rorūyamāṇam uvāca
      kiṃ rodiṣi
      kenāsy abhihata iti
  4 sa evam ukto mātaraṃ pratyuvāca
      janamejayasya bhrātṛbhir abhihato 'smīti
  5 taṃ mātā pratyuvāca
      vyaktaṃ tvayā tatrāparāddhaṃ yenāsy abhihata iti
  6 sa tāṃ punar uvāca
      nāparādhyāmi kiṃ cit
      nāvekṣe havīṃṣi nāvaliha iti
  7 tac chrutvā tasya mātā saramā putraśokārtā tat satram upāgacchad yatra sajanamejayaḥ saha bhrātṛbhir dīrghasatram upāste
  8 sa tayā kruddhayā tatroktaḥ
      ayaṃ me putro na kiṃ cid aparādhyati
      kimartham abhihata iti
      yasmāc cāyam abhihato 'napakārī tasmād adṛṣṭaṃ tvāṃ bhayam āgamiṣyatīti
  9 sajanamejaya evam ukto deva śunyā saramayā dṛḍhaṃ saṃbhrānto viṣaṇṇaś cāsīt
  10 sa tasmin satre samāpte hāstinapuraṃ pratyetya purohitam anurūpam anvicchamānaḥ paraṃ yatnam akarod yo me pāpakṛtyāṃ śamayed iti
 11 sa kadā cin mṛgayāṃ yātaḥ pārikṣito janamejayaḥ kasmiṃś cit svaviṣayoddeśe āśramam apaśyat
 12 tatra kaś cid ṛṣir āsāṃ cakre śrutaśravā nāma
     tasyābhimataḥ putra āste somaśravā nāma
 13 tasya taṃ putram abhigamya janamejayaḥ pārikṣitaḥ paurohityāya vavre
 14 sa namaskṛtya tam ṛṣim uvāca
     bhagavann ayaṃ tava putro mama purohito 'stv iti
 15 sa evam uktaḥ pratyuvāca
     bho janamejaya putro 'yaṃ mama sarpyāṃ jātaḥ
     mahātapasvī svādhyāyasaṃpanno mat tapo vīryasaṃbhṛto mac chukraṃ pītavatyās tasyāḥ kukṣau saṃvṛddhaḥ
     samartho 'yaṃ bhavataḥ sarvāḥ pāpakṛtyāḥ śamayitum antareṇa mahādeva kṛtyām
     asya tv ekam upāṃśu vratam
     yad enaṃ kaś cid brāhmaṇaḥ kaṃ cid artham abhiyācet taṃ tasmai dadyād ayam
     yady etad utsahase tato nayasvainam iti
 16 tenaivam utko janamejayas taṃ pratyuvāca
     bhagavaṃs tathā bhaviṣyatīti
 17 sa taṃ purohitam upādāyopāvṛtto bhrātṝn uvāca
     mayāyaṃ vṛta upādhyāyaḥ
     yad ayaṃ brūyāt tat kāryam avicārayadbhir iti
 18 tenaivam uktā bhrātaras tasya tathā cakruḥ
     sa tathā bhrātṝn saṃdiśya takṣaśilāṃ pratyabhipratasthe
     taṃ ca deśaṃ vaśe sthāpayām āsa
 19 etasminn antare kaś cid ṛṣir dhaumyo nāmāyodaḥ
 20 sa ekaṃ śiṣyam āruṇiṃ pāñcālyaṃ preṣayām āsa
     gaccha kedārakhaṇḍaṃ badhāneti
 21 sa upādhyāyena saṃdiṣṭa āruṇiḥ pāñcālyas tatra gatvā tat kedārakhaṇḍaṃ baddhuṃ nāśaknot
 22 sa kliśyamāno 'paśyad upāyam
     bhavatv evaṃ kariṣyāmīti
 23 sa tatra saṃviveśa kedārakhaṇḍe
     śayāne tasmiṃs tad udakaṃ tasthau
 24 tataḥ kadā cid upādhyāya āyodo dhaumyaḥ śiṣyān apṛcchat
     kva āruṇiḥ pāñcālyo gata iti
 25 te pratyūcuḥ
     bhagavataiva preṣito gaccha kedārakhaṇḍaṃ badhāneti
 26 sa evam uktas tāñ śiṣyān pratyuvāca
     tasmāt sarve tatra gacchāmo yatra sa iti
 27 sa tatra gatvā tasyāhvānāya śabdaṃ cakāra
     bho āruṇe pāñcālya kvāsi
     vatsaihīti
 28 sa tac chrutvā āruṇir upādhyāya vākyaṃ tasmāt kedārakhaṇḍāt sahasotthāya tam upādhyāyam upatasthe
     provāca cainam
     ayam asmy atra kedārakhaṇḍe niḥsaramāṇam udakam avāraṇīyaṃ saṃroddhuṃ saṃviṣṭo bhagavac chabdaṃ śrutvaiva sahasā vidārya kedārakhaṇḍaṃ bhagavantam upasthitaḥ
     tad abhivādaye bhagavantam
     ājñāpayatu bhavān
     kiṃ karavāṇīti
 29 tam upādhyāyo 'bravīt
     yasmād bhavān kedārakhaṇḍam avadāryotthitas tasmād bhavān uddālaka eva nāmnā bhaviṣyatīti
 30 sa upādhyāyenānugṛhītaḥ
     yasmāt tvayā madvaco 'nuṣṭhitaṃ tasmāc chreyo 'vāpsyasīti
     sarve ca te vedāḥ pratibhāsyanti sarvāṇi ca dharmaśāstrāṇīti
 31 sa evam ukta upādhyāyeneṣṭaṃ deśaṃ jagāma
 32 athāparaḥ śiṣyas tasyaivāyodasya daumyasyopamanyur nāma
 33 tam upādhyāyaḥ preṣayām āsa
     vatsopamanyo gā rakṣasveti
 34 sa upādhyāya vacanād arakṣad gāḥ
     sa cāhani gā rakṣitvā divasakṣaye 'bhyāgamyopādhyāyasyāgrataḥ sthitvā namaś cakre
 35 tam upādhyāyaḥ pīvānam apaśyat
     uvāca cainam
     vatsopamanyo kena vṛttiṃ kalpayasi
     pīvān asi dṛḍham iti
 36 sa upādhyāyaṃ pratyuvāca
     bhaikṣeṇa vṛttiṃ kalpayāmīti
 37 tam upādhyāyaḥ pratyuvāca
     mamānivedya bhaikṣaṃ nopayoktavyam iti
 38 sa tathety uktvā punar arakṣad gāḥ
     rakṣitvā cāgamya tathaivopādhyāyasyāgrataḥ sthitvā namaś cakre
 39 tam upādhyāyas tathāpi pīvānam eva dṛṣṭvovāca
     vatsopamanyo sarvam aśeṣatas te bhaikṣaṃ gṛhṇāmi
     kenedānīṃ vṛttiṃ kalpayasīti
 40 sa evam ukta upādhyāyena pratyuvāca
     bhagavate nivedya pūrvam aparaṃ carāmi
     tena vṛttiṃ kalpayāmīti
 41 tam upādhyāyaḥ pratyuvāca
     naiṣā nyāyyā guruvṛttiḥ
     anyeṣām api vṛttyuparodhaṃ karoṣy evaṃ vartamānaḥ
     lubdho 'sīti
 42 sa tathety uktvā gā arakṣat
     rakṣitvā ca punar upādhyāya gṛham āgamyopādhyāyasyāgrataḥ sthitvā namaś cakre
 43 tam upādhyāyas tathāpi pīvānam eva dṛṣṭvā punar uvāca
     ahaṃ te sarvaṃ bhaikṣaṃ gṛhṇāmi na cānyac carasi
     pīvān asi
     kena vṛttiṃ kalpayasīti
 44 sa upādhyāyaṃ pratyuvāca
     bho etāsāṃ gavāṃ payasā vṛttiṃ kalpayāmīti
 45 tam upādhyāyaḥ pratyuvāca
     naitan nyāyyaṃ paya upayoktuṃ bhavato mayānanujñātam iti
 46 sa tatheti pratijñāya gā rakṣitvā punar upādhyāya gṛhān etya puror agrataḥ sthitvā namaś cakre
 47 tam upādhyāyaḥ pīvānam evāpaśyat
     uvāca cainam
     bhaikṣaṃ nāśnāsi na cānyac carasi
     payo na pibasi
     pīvān asi
     kena vṛttiṃ kalpayasīti
 48 sa evam ukta upādhyāyaṃ pratyuvāca
     bhoḥ phenaṃ pibāmi yam ime vatsā mātṝṇāṃ stanaṃ pibanta udgirantīti
 49 tam upādhyāyaḥ pratyuvāca
     ete tvad anukampayā guṇavanto vatsāḥ prabhūtataraṃ phenam udgiranti
     tad evam api vatsānāṃ vṛttyuparodhaṃ karoṣy evaṃ vartamānaḥ
     phenam api bhavān na pātum arhatīti
 50 sa tatheti pratijñāya nirāhāras tā gā arakṣat
     tathā pratiṣiddho bhaikṣaṃ nāśnāti na cānyac carati
     payo na pibati
     phenaṃ nopayuṅkte
 51 sa kadā cid araṇye kṣudhārto 'rkapatrāṇy abhakṣayat
 52 sa tair arkapatrair bhakṣitaiḥ kṣāra kaṭūṣṇa vipākibhiś cakṣuṣy upahato 'ndho 'bhavat
     so 'ndho 'pi caṅkramyamāṇaḥ kūpe 'patat
 53 atha tasminn anāgacchaty upādhyāyaḥ śiṣyān avocat
     mayopamanyuḥ sarvataḥ pratiṣiddhaḥ
     sa niyataṃ kupitaḥ
     tato nāgacchati ciragataś ceti
 54 sa evam uktvā gatvāraṇyam upamanyor āhvānaṃ cakre
     bho upamanyo kvāsi
     vatsaihīti
 55 sa tadāhvānam upādhyāyāc chrutvā pratyuvācoccaiḥ
     ayam asmi bho upādhyāya kūpe patita iti
 56 tam upādhyāyaḥ pratyuvāca
     katham asi kūpe patita iti
 57 sa taṃ pratyuvāca
     arkapatrāṇi bhakṣayitvāndhī bhūto 'smi
     ataḥ kūpe patita iti
 58 tam upādhyāyaḥ pratyuvāca
     aśvinau stuhi
     tau tvāṃ cakṣuṣmantaṃ kariṣyato deva bhiṣajāv iti
 59 sa evam ukta upādhyāyena stotuṃ pracakrame devāv aśvinau vāgbhir ṛgbhiḥ
 60 prapūrvagau pūrvajau citrabhānū; girā vā śaṃsāmi tapanāv anantau
     divyau suparṇau virajau vimānāv; adhikṣiyantau bhuvanāni viśvā
 61 hiraṇmayau śakunī sāmparāyau; nāsatya dasrau sunasau vaijayantau
     śukraṃ vayantau tarasā suvemāv; abhi vyayantāv asitaṃ vivasvat
 62 grastāṃ suparṇasya balena vartikām; amuñcatām aśvinau saubhagāya
     tāvat suvṛttāv anamanta māyayā; sattamā gā aruṇā udāvahan
 63 ṣaṣṭiś ca gāvas triśatāś ca dhenava; ekaṃ vatsaṃ suvate taṃ duhanti
     nānā goṣṭhā vihitā ekadohanās; tāv aśvinau duhato gharmam ukthyam
 64 ekāṃ nābhiṃ saptaśatā arāḥ śritāḥ; pradhiṣv anyā viṃśatir arpitā arāḥ
     anemi cakraṃ parivartate 'jaraṃ; māyāśvinau samanakti carṣaṇī
 65 ekaṃ cakraṃ vartate dvādaśāraṃ; pradhi ṣaṇ ṇābhim ekākṣam amṛtasya dhāraṇam
     yasmin devā adhi viśve viṣaktās; tāv aśvinau muñcato mā viṣīdatam
 66 aśvināv indram amṛtaṃ vṛttabhūyau; tirodhattām aśvinau dāsapatnī
     bhittvā girim aśvinau gām udācarantau; tad vṛṣṭam ahnā prathitā valasya
 67 yuvāṃ diśo janayatho daśāgre; samānaṃ mūrdhni rathayā viyanti
     tāsāṃ yātam ṛṣayo 'nuprayānti; devā manuṣyāḥ kṣitim ācaranti
 68 yuvāṃ varṇān vikurutho viśvarūpāṃs; te 'dhikṣiyanti bhuvanāni viśvā
     te bhānavo 'py anusṛtāś caranti; devā manuṣyāḥ kṣitim ācaranti
 69 tau nāsatyāv aśvināv āmahe vāṃ; srajaṃ ca yāṃ bibhṛthaḥ puṣkarasya
     tau nāsatyāv amṛtāvṛtāvṛdhāv; ṛte devās tat prapadena sūte
 70 mukhena garbhaṃ labhatāṃ yuvānau; gatāsur etat prapadena sūte
     sadyo jāto mātaram atti garbhas tāv; aśvinau muñcatho jīvase gāḥ
 71 evaṃ tenābhiṣṭutāv aśvināv ājagmatuḥ
     āhatuś cainam
     prītau svaḥ
     eṣa te 'pūpaḥ
     aśānainam iti
 72 sa evam utaḥ pratyuvāca
     nānṛtam ūcatur bhavantau
     na tv aham etam apūpam upayoktum utsahe anivedya gurava iti
 73 tatas tam aśvināv ūcatuḥ
     āvābhyāṃ purastād bhavata upādhyāyenaivam evābhiṣṭutābhyām apūpaḥ prītābhyāṃ dattaḥ
     upayuktaś ca sa tenānivedya gurave
     tvam api tathaiva kuruṣva yathā kṛtam upādhyāyeneti
 74 sa evam uktaḥ punar eva pratyuvācaitau
     pratyanunaye bhavantāv aśvinau
     notsahe 'ham anivedyopādhyāyāyopayoktum iti
 75 tam aśvināv āhatuḥ
     prītau svas tavānayā guruvṛttyā
     upādhyāyasya te kārṣṇāyasā dantāḥ
     bhavato hiraṇmayā bhaviṣyanti
     cakṣuṣmāṃś ca bhaviṣyasi
     śreyaś cāvāpsyasīti
 76 sa evam ukto 'śvibhyāṃ labdhacakṣur upādhyāya sakāśam āgamyopādhyāyam abhivādyācacakṣe
     sa cāsya prītimān abhūt
 77 āha cainam
     yathāśvināv āhatus tathā tvaṃ śreyo 'vāpsyasīti
     sarve ca te vedāḥ pratibhāsyantīti
 78 eṣā tasyāpi parīkṣopamanyoḥ
 79 athāparaḥ śiṣyas tasyaivāyodasya dhaumyasya vedo nāma
 80 tam upādhyāyaḥ saṃdideśa
     vatsa veda ihāsyatām
     bhavatā madgṛhe kaṃ cit kālaṃ śuśrūṣamāṇena bhavitavyam
     śreyas te bhaviṣyatīti
 81 sa tathety uktvā guru kule dīrghakālaṃ guruśuśrūṣaṇaparo 'vasat
     gaur iva nityaṃ guruṣu dhūrṣu niyujyamānaḥ śītoṣṇakṣut tṛṣṇā duḥkhasahaḥ sarvatrāpratikūlaḥ
 82 tasya mahatā kālena guruḥ paritoṣaṃ jagāma
     tatparitoṣāc ca śreyaḥ sarvajñatāṃ cāvāpa
     eṣā tasyāpi parīkṣā vedasya
 83 sa upādhyāyenānujñātaḥ samāvṛttas tasmād guru kulavāsād gṛhāśramaṃ pratyapadyata
     tasyāpi svagṛhe vasatas trayaḥ śiṣyā babhūvuḥ
 84 sa śiṣyān na kiṃ cid uvāca
     karma vā kriyatāṃ guruśuśrūṣā veti
     duḥkhābhijño hi guru kulavāsasya śiṣyān parikleśena yojayituṃ neyeṣa
 85 atha kasya cit kālasya vedaṃ brāhmaṇaṃ janamejayaḥ pauṣyaś ca kṣatriyāv upetyopādhyāyaṃ varayāṃ cakratuḥ
 86 sa kadā cid yājya kāryeṇābhiprasthita uttaṅkaṃ nāma śiṣyaṃ niyojayām āsa
     bho uttaṅka yat kiṃ cid asmad gṛhe parihīyate yad icchāmy aham aparihīṇaṃ bhavatā kriyamāṇam iti
 87 sa evaṃ pratisamādiśyottaṅkaṃ vedaḥ pravāsaṃ jagāma
 88 athottaṅko guruśuśrūṣur guru niyogam anutiṣṭhamānas tatra guru kule vasati sma
 89 sa vasaṃs tatropādhyāya strībhiḥ sahitābhir āhūyoktaḥ
     upādhyāyinī te ṛtumatī
     upādhyāyaś ca proṣitaḥ
     asyā yathāyam ṛtur vandhyo na bhavati tathā kriyatām
     etad viṣīdatīti
 90 sa evam uktas tāḥ striyaḥ pratyuvāca
     na mayā strīṇāṃ vacanād idam akāryaṃ kāryam
     na hy aham upādhyāyena saṃdiṣṭaḥ
     akāryam api tvayā kāryam iti
 91 tasya punar upādhyāyaḥ kālāntareṇa gṛhān upajagāma tasmāt pravāsāt
     sa tadvṛttaṃ tasyāśeṣam upalabhya prītimān abhūt
 92 uvāca cainam
     vatsottaṅka kiṃ te priyaṃ karavāṇīti
     dharmato hi śuśrūṣito 'smi bhavatā
     tena prītiḥ paraspareṇa nau saṃvṛddhā
     tad anujāne bhavantam
     sarvām eva siddhiṃ prāpsyasi
     gamyatām iti
 93 sa evam uktaḥ pratyuvāca
     kiṃ te priyaṃ karavāṇīti
     evaṃ hy āhuḥ
 94 yaś cādharmeṇa vibrūyād yaś cādharmeṇa pṛcchati
 95 tayor anyataraḥ praiti vidveṣaṃ cādhigacchati
     so 'ham anujñāto bhavatā icchāmīṣṭaṃ te gurvartham upahartum iti
 96 tenaivam ukta upādhyāyaḥ pratyuvāca
     vatsottaṅka uṣyatāṃ tāvad iti
 97 sa kadā cit tam upādhyāyam āhottaṅkaḥ
     ājñāpayatu bhavān
     kiṃ te priyam upaharāmi gurvartham iti
 98 tam upādhyāyaḥ pratyuvāca
     vatsottaṅka bahuśo māṃ codayasi gurvartham upahareyam iti
     tad gaccha
     enāṃ praviśyopādhyāyanīṃ pṛccha kim upaharāmīti
     eṣā yad bravīti tad upaharasveti
 99 sa evam uktopādhyāyenopādhyāyinīm apṛcchat
     bhavaty upādhyāyenāsmy anujñāto gṛhaṃ gantum
     tad icchāmīṣṭaṃ te gurvartham upahṛtyānṛṇo gantum
     tad ājñāpayatu bhavatī
     kim upaharāmi gurvartham iti
 100 saivam uktopādhyāyiny uttaṅkaṃ pratyuvāca
    gaccha pauṣyaṃ rājānam
    bhikṣasva tasya kṣatriyayā pinaddhe kuṇḍale
    te ānayasva
    itaś caturthe 'hani puṇyakaṃ bhavitā
    tābhyām ābaddhābhyāṃ brāhmaṇān pariveṣṭum icchāmi
    śobhamānā yathā tābhyāṃ kuṇḍalābhyāṃ tasminn ahani saṃpādayasva
    śreyo hi te syāt kṣaṇaṃ kurvata iti
101 sa evam ukta upādhyāyinyā prātiṣṭhatottaṅkaḥ
    sa pathi gacchann apaśyad ṛṣabham atipramāṇaṃ tam adhirūḍhaṃ ca puruṣam atipramāṇam eva
102 sa puruṣa uttaṅkam abhyabhāṣata
    uttaṅkaitat purīṣam asya ṛṣabhasya bhakṣasveti
103 sa evam ukto naicchati
104 tam āha puruṣo bhūyaḥ
    bhakṣayasvottaṅka
    mā vicāraya
    upādhyāyenāpi te bhakṣitaṃ pūrvam iti
105 sa evam ukto bāḍham ity uktvā tadā tad ṛṣabhasya purīṣaṃ mūtraṃ ca bhakṣayitvottaṅkaḥ pratasthe yatra sa kṣatriyaḥ pauṣyaḥ
106 tam upetyāpaśyad uttaṅka āsīnam
    sa tam upetyāśīrbhir abhinandyovāca
    arthī bhavantam upagato 'smīti
107 sa enam abhivādyovāca
    bhagavan pauṣyaḥ khalv aham
    kiṃ karavāṇīti
108 tam uvācottaṅkaḥ
    gurvarthe kuṇḍalābhyām arthy āgato 'smīti ye te kṣatriyayā pinaddhe kuṇḍale te bhavān dātum arhatīti
109 taṃ pauṣyaḥ pratyuvāca
    praviśyāntaḥpuraṃ kṣatriyā yācyatām iti
110 sa tenaivam uktaḥ praviśyāntaḥpuraṃ kṣatriyāṃ nāpaśyat
111 sa pauṣyaṃ punar uvāca
    na yuktaṃ bhavatā vayam anṛtenopacaritum
    na hi te kṣatriyāntaḥpure saṃnihitā
    naināṃ paśyāmīti
112 sa evam uktaḥ pauṣyas taṃ pratyuvāca
    saṃprati bhavān ucchiṣṭaḥ
    smara tāvat
    na hi sā kṣatriyā ucchiṣṭenāśucinā vā śakyā draṣṭum
    pativratātvād eṣā nāśucer darśanam upaitīti
113 athaivam ukta uttaṅkaḥ smṛtvovāca
    asti khalu mayocchiṣṭenopaspṛṣṭaṃ śīghraṃ gacchatā ceti
114 taṃ pauṣyaḥ pratyuvāca
    etat tad evaṃ hi
    na gacchatopaspṛṣṭaṃ bhavati na sthiteneti
115 athottaṅkas tathety uktvā prāṅmukha upaviśya suprakṣālita pāṇipādavadano 'śabdābhir hṛdayaṃgamābhir adbhir upaspṛśya triḥ pītvā dviḥ pramṛjya khāny adbhir upaspṛśyāntaḥpuraṃ praviśya tāṃ kṣatriyām apaśyat
116 sā ca dṛṣṭvaivottaṅkam abhyutthāyābhivādyovāca
    svāgataṃ te bhagavan
    ājñāpaya kiṃ karavāṇīti
117 sa tām uvāca
    ete kuṇḍale gurvarthaṃ me bhikṣite dātum arhasīti
118 sā prītā tena tasya sadbhāvena pātram ayam anatikramaṇīyaś ceti matvā te kuṇḍale avamucyāsmai prāyacchat
119 āha cainam
    ete kuṇḍale takṣako nāgarājaḥ prārthayati
    apramatto netum arhasīti
120 sa evam uktas tāṃ kṣatriyāṃ pratyuvāca
    bhavati sunirvṛttā bhava
    na māṃ śaktas takṣako nāgarājo dharṣayitum iti
121 sa evam uktvā tāṃ kṣatriyām āmantrya pauṣya sakāśam āgacchat
122 sa taṃ dṛṣṭvovāca
    bhoḥ pauṣya prīto 'smīti
123 taṃ pauṣyaḥ pratyuvāca
    bhagavaṃś cirasya pātram āsādyate
    bhavāṃś ca guṇavān atithiḥ
    tat kariye śrāddham
    kṣaṇaḥ kriyatām iti
124 tam uttaṅkaḥ pratyuvāca
    kṛtakṣaṇa evāsmi
    śīghram icchāmi yathopapannam annam upahṛtaṃ bhavateti
125 sa tathety uktvā yathopapannenānnenainaṃ bhojayām āsa
126 athottaṅkaḥ śītam annaṃ sakeśaṃ dṛṣṭvāśucy etad iti matvā pauṣyam uvāca
    yasmān me aśucy annaṃ dadāsi tasmad andho bhaviṣyasīti
127 taṃ pauṣyaḥ pratyuvāca
    yasmāt tvam apy aduṣṭam annaṃ dūṣayasi tasmād anapatyo bhaviṣyasīti
128 so 'tha pauṣyas tasyāśuci bhāvam annasyāgamayām āsa
129 atha tadannaṃ muktakeśyā striyopahṛtaṃ sakeśam aśuci matvottaṅkaṃ prasādayām āsa
    bhagavann ajñānād etad annaṃ sakeśam upahṛtaṃ śītaṃ ca
    tat kṣāmaye bhavantam
    na bhaveyam andha iti
130 tam uttaṅkaḥ pratyuvāca
    na mṛṣā bravīmi
    bhūtvā tvam andho nacirād anandho bhaviṣyasīti
    mamāpi śāpo na bhaved bhavatā datta iti
131 taṃ pauṣyaḥ pratyuvāca
    nāhaṃ śaktaḥ śāpaṃ pratyādātum
    na hi me manyur adyāpy upaśamaṃ gacchati
    kiṃ caitad bhavatā na jñāyate yathā
132 nāvanītaṃ hṛdayaṃ brāhmaṇasya; vāci kṣuro nihitas tīkṣṇadhāraḥ
    viparītam etad ubhayaṃ kṣatriyasya; vān nāvanītī hṛdayaṃ tīkṣṇadhāram
133 iti
    tad evaṃgate na śakto 'haṃ tīkṣṇahṛdayatvāt taṃ śāpam anyathā kartum
    gamyatām iti
134 tam uttaṅkaḥ pratyuvāca
    bhavatāham annasyāśuci bhāvam āgamayya pratyanunītaḥ
    prāk ca te 'bhihitam
    yasmād aduṣṭam annaṃ dūṣayasi tasmād anapatyo bhaviṣyasīti
    duṣṭe cānne naiṣa mama śāpo bhaviṣyatīti
135 sādhayāmas tāvad ity uktvā prātiṣṭhatottaṅkas te kuṇḍale gṛhītvā
136 so 'paśyat pathi nagnaṃ śramaṇam āgacchantaṃ muhur muhur dṛśyamānam adṛśyamānaṃ ca
    athottaṅkas te kuṇḍale bhūmau nikṣipyodakārthaṃ pracakrame
137 etasminn antare sa śramaṇas tvaramāṇa upasṛtya te kuṇḍale gṛhītvā prādravat
    tam uttaṅko 'bhisṛtya jagrāha
    sa tad rūpaṃ vihāya takṣaka rūpaṃ kṛtvā sahasā dharaṇyāṃ vivṛtaṃ mahābilaṃ viveśa
138 praviśya ca nāgalokaṃ svabhavanam agacchat
    tam uttaṅko 'nvāviveśa tenaiva bilena
    praviśya ca nāgān astuvad ebhiḥ ślokaiḥ
139 ya airāvata rājānaḥ sarpāḥ samitiśobhanāḥ
    varṣanta iva jīmūtāḥ savidyutpavaneritāḥ
140 surūpāś ca virūpāś ca tathā kalmāṣakuṇḍalāḥ
    ādityavan nākapṛṣṭhe rejur airāvatodbhavāḥ
141 bahūni nāgavartmāni gaṅgāyās tīra uttare
    icchet ko 'rkāṃśu senāyāṃ cartum airāvataṃ vinā
142 śatāny aśītir aṣṭau ca sahasrāṇi ca viṃśatiḥ
    sarpāṇāṃ pragrahā yānti dhṛtarāṣṭro yad ejati
143 ye cainam upasarpanti ye ca dūraṃ paraṃ gatāḥ
    aham airāvata jyeṣṭhabhrātṛbhyo 'karavaṃ namaḥ
144 yasya vāsaḥ kurukṣetre khāṇḍave cābhavat sadā
    taṃ kādraveyam astauṣaṃ kuṇḍalārthāya takṣakam
145 takṣakaś cāśvasenaś ca nityaṃ sahacarāv ubhau
    kurukṣetre nivasatāṃ nadīm ikṣumatīm anu
146 jaghanyajas takṣakasya śrutaseneti yaḥ śrutaḥ
    avasadyo mahad dyumni prārthayan nāgamukhyatām
    karavāṇi sadā cāhaṃ namas tasmai mahātmane
147 evaṃ stuvann api nāgān yadā te kuṇḍale nālabhad athāpaśyat striyau tantre adhiropya paṭaṃ vayantyau
148 tasmiṃś ca tantre kṛṣṇāḥ sitāś ca tantavaḥ
    cakraṃ cāpaśyat ṣaḍbhiḥ kumāraiḥ parivartyamānam
    puruṣaṃ cāpaśyad darśanīyam
149 sa tān sarvās tuṣṭāvaibhir mantravādaślokaiḥ
150 trīṇy arpitāny atra śatāni madhye; ṣaṣṭiś ca nityaṃ carati dhruve 'smin
    cakre caturviṃśatiparva yoge ṣaḍ; yat kumārāḥ parivartayanti
151 tantraṃ cedaṃ viśvarūpaṃ yuvatyau; vayatas tantūn satataṃ vartayantyau
    kṛṣṇān sitāṃś caiva vivartayantyau; bhūtāny ajasraṃ bhuvanāni caiva
152 vajrasya bhartā bhuvanasya goptā; vṛtrasya hantā namucer nihantā
    kṛṣṇe vasāno vasane mahātmā; satyānṛte yo vivinakti loke
153 yo vājinaṃ garbham apāṃ purāṇaṃ; vaiśvānaraṃ vāhanam abhyupetaḥ
    namaḥ sadāsmai jagad īśvarāya; lokatrayeśāya puraṃdarāya
154 tataḥ sa enaṃ puruṣaḥ prāha
    prīto 'smi te 'ham anena stotreṇa
    kiṃ te priyaṃ karavāṇīti
155 sa tam uvāca
    nāgā me vaśam īyur iti
156 sa enaṃ puruṣaḥ punar uvāca
    etam aśvam apāne dhamasveti
157 sa tam aśvam apāne 'dhamat
    athāśvād dhamyamānāt sarvasrotobhyaḥ sadhūmā arciṣo 'gner niṣpetuḥ
158 tābhir nāgaloko dhūpitaḥ
159 atha sasaṃbhramas takṣako 'gnitejo bhayaviṣaṇṇas te kuṇḍale gṛhītvā sahasā svabhavanān niṣkramyottaṅkam uvāca
    ete kuṇḍale pratigṛhṇātu bhavān iti
160 sa te pratijagrāhottaṅkaḥ
    kuṇḍale pratigṛhyācintayat
    adya tat puṇyakam upādhyāyinyāḥ
    dūraṃ cāham abhyāgataḥ
    kathaṃ nu khalu saṃbhāvayeyam iti
161 tata enaṃ cintayānam eva sa puruṣa uvāca
    uttaṅka enam aśvam adhiroha
    eṣa tvāṃ kṣaṇād evopādhyāya kulaṃ prāpayiṣyatīti
162 sa tathety uktvā tam aśvam adhiruhya pratyājagāmopādhyāya kulam
    upādhyāyinī ca snātā keśān āvapayanty upaviṣṭottaṅko nāgacchatīti śāpāyāsya mano dadhe
163 athottaṅkaḥ praviśyopādhyāyinīm abhyavādayat
    te cāsyai kuṇḍale prāyacchat
164 sā cainaṃ pratyuvāca
    uttaṅka deśe kāle 'bhyāgataḥ
    svāgataṃ te vatsa
    manāg asi mayā na śaptaḥ
    śreyas tavopasthitam
    siddham āpnuhīti
165 athottaṅka upādhyāyam abhyavādayat
    tam upādhyāyaḥ pratyuvāca
    vatsottaṅka svāgataṃ te
    kiṃ ciraṃ kṛtam iti
166 tam uttaṅka upādhyāyaṃ pratyuvāca
    bhos takṣakeṇa nāgarājena vighnaḥ kṛto 'smin karmaṇi
    tenāsmi nāgalokaṃ nītaḥ
167 tatra ca mayā dṛṣṭe striyau tantre 'dhiropya paṭaṃ vayantyau
    tasmiṃś ca tantre kṛṣṇāḥ sitāś ca tantavaḥ
    kiṃ tat
168 tatra ca mayā cakraṃ dṛṣṭaṃ dvādaśāram
    ṣaṭ cainaṃ kumārāḥ parivartayanti
    tad api kim
169 puruṣaś cāpi mayā dṛṣṭaḥ
    sa punaḥ kaḥ
170 aśvaś cātipramāṇa yuktaḥ
    sa cāpi kaḥ
171 pathi gacchatā mayarṣabho dṛṣṭaḥ
    taṃ ca puruṣo 'dhirūḍhaḥ
    tenāsmi sopacāram uktaḥ
    uttaṅkāsyarṣabhasya purīṣaṃ bhakṣaya
    upādhyāyenāpi te bhakṣitam iti
    tatas tad vacanān mayā tad ṛṣabhasya purīṣam upayuktam
    tad icchāmi bhavatopadiṣṭaṃ kiṃ tad iti
172 tenaivam ukta upādhyāyaḥ pratyuvāca
    ye te striyau dhātā vidhātā ca
    ye ca te kṛṣṇāḥ sitāś ca tantavas te rātryahanī
173 yad api tac cakraṃ dvādaśāraṃ ṣaṭ kumārāḥ parivartayanti te ṛtavaḥ ṣaṭ saṃvatsaraś cakram
    yaḥ puruṣaḥ sa parjanyaḥ
    yo 'śvaḥ so 'gniḥ
174 ya ṛṣabhas tvayā pathi gacchatā dṛṣṭaḥ sa airāvato nāgarājaḥ
    yaś cainam adhirūḍhaḥ sendraḥ
    yad api te purīṣaṃ bhakṣitaṃ tasya ṛṣabhasya tad amṛtam
175 tena khalv asi na vyāpannas tasmin nāgabhavane
    sa cāpi mama sakhā indraḥ
176 tad anugrahāt kuṇḍale gṛhītvā punar abhyāgato 'si
    tat saumya gamyatām
    anujāne bhavantam
    śreyo 'vāpsyasīti
177 sa upādhyāyenānujñāta uttaṅkaḥ kruddhas takṣakasya praticikīrṣamāṇo hāstinapuraṃ pratasthe
178 sa hāstinapuraṃ prāpya nacirād dvijasattamaḥ
    samāgacchata rājānam uttaṅko janamejayam
179 purā takṣaśilātas taṃ nivṛttam aparājitam
    samyag vijayinaṃ dṛṣṭvā samantān mantribhir vṛtam
180 tasmai jayāśiṣaḥ pūrvaṃ yathānyāyaṃ prayujya saḥ
    uvācainaṃ vacaḥ kāle śabdasaṃpannayā girā
181 anyasmin karaṇīye tvaṃ kārye pārthiva sattama
    bālyād ivānyad eva tvaṃ kuruṣe nṛpasattama
182 evam uktas tu vipreṇa sa rājā pratyuvāca ha
    janamejayaḥ prasannātmā samyak saṃpūjya taṃ munim
183 āsāṃ prajānāṃ paripālanena; svaṃ kṣatradharmaṃ paripālayāmi
    prabrūhi vā kiṃ kriyatāṃ dvijendra; śuśrūṣur asmy adya vacas tvadīyam
184 sa evam uktas tu nṛpottamena; dvijottamaḥ puṇyakṛtāṃ variṣṭhaḥ
    uvāca rājānam adīnasattvaṃ; svam eva kāryaṃ nṛpateś ca yat tat
185 takṣakeṇa narendrendra yena te hiṃsitaḥ pitā
    tasmai pratikuruṣva tvaṃ pannagāya durātmane
186 kāryakālaṃ ca manye 'haṃ vidhidṛṣṭasya karmaṇaḥ
    tad gacchāpacitiṃ rājan pitus tasya mahātmanaḥ
187 tena hy anaparādhī sa daṣṭo duṣṭāntar ātmanā
    pañcatvam agamad rājā varjāhata iva drumaḥ
188 baladarpa samutsiktas takṣakaḥ pannagādhamaḥ
    akāryaṃ kṛtavān pāpo yo 'daśat pitaraṃ tava
189 rājarṣir vaṃśagoptāram amara pratimaṃ nṛpam
    jaghāna kāśyapaṃ caiva nyavartayata pāpakṛt
190 dagdhum arhasi taṃ pāpaṃ jvalite havyavāhane
    sarvasatre mahārāja tvayi tad dhi vidhīyate
191 evaṃ pituś cāpacitiṃ gatavāṃs tvaṃ bhaviṣyasi
    mama priyaṃ ca sumahat kṛtaṃ rājan bhaviṣyati
192 karmaṇaḥ pṛthivīpāla mama yena durātmanā
    vighnaḥ kṛto mahārāja gurvarthaṃ carato 'nagha
193 etac chrutvā tu nṛpatis takṣakasya cukopa ha
    uttaṅka vākyahaviṣā dīpto 'gnir haviṣā yathā
194 apṛcchac ca tadā rājā mantriṇaḥ svān suduḥkhitaḥ
    uttaṅkasyaiva sāṃnidhye pituḥ svargagatiṃ prati
195 tadaiva hi sa rājendro duḥkhaśokāpluto 'bhavat
    yadaiva pitaraṃ vṛttam uttaṅkād aśṛṇot tadā


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